शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

छठ महापर्व: आस्था का महापर्व छठ आज भी आधुनिकता की चकाचोंध से कोसो दूर


मन की सुद्धता एव सात्विकता के साथ लाखो लोगो का आस्था का है जुड़ाव
कोशी बिहार टुडे

छठ महापर्व में परंपरा की प्रधानता होती है। मन की शुद्धता व सात्विकता के साथ प्रकृति व मिट्टी से जुड़ाव देखी जाती है। समय के साथ इस पर्व में आधुनिकता का समागम हुआ पर परंपरा आज भी पुरानी है।

भले ही हम रोजाना ब्रश और टूथपेस्ट से मुंह धोते हैं पर इस महापर्व को दौरान व्रती दातुन से मुंह धोते हैं। आम दिनों में हम घर में आरओ, नल पानी का इस्तेमाल करते हैं, पर छठ का प्रसाद बनाने के लिए गंगा जल या कुएं के पानी का इस्तेमाल किया जाता है। स्टील आदि के बर्तनों के बदले पीतल, तांबे के बर्तनों का इस्तेमाल होता है। घरों में हम रोटी पैकेटबंद आटा की बनाते हैं पर प्रसाद के लिए गेहूं को सुखाकर धोया जाता और पिसवाया जाता है। बर्तन धोए जाएंगे और गंगाजल भरकर घर लाए जाएंगे। प्रसाद बनाने के लिए गैस चूल्हे का नहीं बल्कि मिट्टी के चूल्हे का प्रयोग किया जाता है।

 पूजन में जहां परंपरा की आज भी प्रधानता देखी जाती है, वहीं व्रतियों ने परिस्थिति व बदलते समाज के हिसाब से आधुनिकता का भी इसमें समावेश किया है। परंपरा है कि व्रती 36 घंटे निर्जला उपवास के दौरान मिट्टी पर ही सोते हैं।  आज शहरों में मिट्टी के घर कहां मिलेंगे। व्रती सोते तो हैं भूमि पर ही पर वह आज पक्का हो गया है।
किसी पंडित की जरूरत नहीं पड़ती
इसमें पूजा-अर्चना के लिए किसी पंडित या शास्त्रों की जरूरत नहीं पड़ती है। छठ व्रती ही सारे कर्मकांड करते हैं। इसमें उनका पूरा परिवार और आस-पड़ोस के लोग कर्मकांड की जटिलताओं को कम करते हैं। वहीं हमारा समाज बदल रहा, बोलचाल, भाषा, संस्कृति, आचार-विचार सबमें बदलाव दिखता है। हमारी संस्कृति, पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हो रही है। पर छठ पर्व ऐसा है जिसमें कोई बदलाव नहीं आया है।
पवित्रता का रखा जाता है ख्याल
आज भी पवित्रता का उसी तरह ख्याल रखा जाता है जैसे सदियों पहले रखा जाता था। कर्मकांड विशेषज्ञ पं. भवनाथ झा कहते हैं कि हमारे अन्य पर्वों में जहां आधुनिकता के कारण पर्याप्त परिवर्तन आ चुका है, वहीं छठ पर्व में हम पाते हैं कि लगभग 13वीं शती से जो विधान शास्त्रों में पाये जाते हैं, वे आज भी सुरक्षित हैं। यह इस पर्व के प्रति असीम आस्था का परिणाम है।

गुड़ की जगह ली चीनी की खीर
खरना के प्रसाद में गुड़ की खीर की प्रधानता होती है पर आज चीनी की खीर का प्रचलन होने लगा है। पहले परिधान में सूती का अधिक इस्तेमाल होता था पर आज सिल्क भी लोग पहनने लगे हैं।

कोई वाहन से जाता है तो कोई घर की छत पर देता है अर्घ्य
परंपरा है घाटों तक पैदल जाने का। घर से घाट तक व्रती के परिजनों द्वारा सिर पर छठ प्रसाद का दउरा लेकर जाने की परंपरा है। पर आज व्रती के परिजन घर से घाटों तक पैदल जाने के बदले वाहनों से पहुंचते हैं। सिर पर दउरा लेकर जाने की बजाय गाड़ी या ठेले पर लेकर दउरा लेकर जाते हैं। लोग ई-रिक्शा को भी छठ व्रत की प्रसाद को ढोने के लिए इस्तेमाल करने लगे हैं। पोखड़ में  पानी प्राय: कूड़ा-कचरा से मिश्रित होता है। व्रती मजबूरी में  घर पर छत पर ही या अस्थायी तालाब बनाकर भगवान भास्कर को अर्घ्य देते हैं।

प्रकृति से जुड़ाव का पर्व
छठ महापर्व में प्रकृति और मिट्टी से जुड़ाव  देखी जाती है। सूर्य की उपासना करते हैं। स्वच्छता का ध्यान रखा जाता है तो जल में अर्घ्य देते हैं। छठ महापर्व में अर्घ्य के सामानों पर नजर डालें तो सबके सब प्रकृति से जुड़े हैं। अर्ध्य में नए बांस से बनी सूप व डाला का प्रयोग किया जाता है। मान्यता है कि सूप से वंश में वृद्धि होती है और वंश की रक्षा भी।  प्रसाद में  ईख चढ़ता है। यह आरोग्यता का द्दोतक है। इसमें ठेकुआ चढ़ाया जाता है जो समृद्धि का द्दोतक है। मौसम के फल अर्पित किये जाते हैं।  मौसम के फल, फल प्राप्ति के द्दोतक हैं। छठ गीतों में भी प्रकृति से जुड़ाव महसूस होता है।
श्रोत-हिंदुस्तान

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